

यह सही है कि अंग्रेज़ी समाचार पत्र-पत्रिकाओं की तुलना में हिन्दी भाषा के (दैनिक) समाचार पत्रों को मिलने वाले विज्ञापन कुछ कम होते हैं. अक्सर कहा यह जाता है कि हिन्दी पढ़ने वालों की आय व क्रय- क्षमता अंग्रेज़ी भाषा पढ़ने वालों की अपेक्षा कम होती है. वैसे तो यह अलग विवाद का विषय है, अत: इस पर चर्चा फिर कभी. फिलहाल मुद्दआ यह है कि समाचारपत्रॉं का सम्पादकीय विभाग इतना सम्वेदनहीन क्यों है कि एक संस्थान से विज्ञापन का पैसा वसूल हुआ नहीं कि उसे भूल बैठे.
राजधानी के एक प्रमुख राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक में 2 सितम्बर को छपा एक विज्ञापन जो गुरु दुर्बलनाथ जी के 148 वें जन्म दिवस समारोह से सम्बन्धित था.
अगले दिन इसी समाचारपत्र में उस समारोह की रपट भी प्रकाशित हुई, परंतु अब ज़रा उस रपट पर एक निगाह डालें. गुरु दुर्बल नाथ को बना दिया दुर्लभनाथ. प्रमुख संवाददाता की लापरवाही तो देखें कि पूरी रपट में दो बार गुरु जी को दुर्बलनाथ बताया गया है और दो बार दुर्लभनाथ.
इतना सब तब,जब एक दिन पहले ही संस्था से बड़े विज्ञापन की रकम भी डकारी जा चुकी थी. विज्ञापन का पैसा हज़म ,तो फिर खेल खतम?
3 comments:
अब जब पैसा जेब में आ ही गया है तो फिर चाहे दुर्बलनाथ हो,दुर्लभनाथ या फिर निर्बलनाथ हो...क्या फर्क पडता है:)
@पंडित जी, यही तो आज के युग की बिडम्बना है.
क्या ये लोग कभी सुधर पायेंगे ?
टिप्पणी हेतु धन्यवाद.
वाकई, पैसा हजम, खेल खतम!!
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